Wednesday, August 7, 2013

Shifting to Wordpress

Dear Friends,

I am shifting to wordpress for blogging. New address is https://justarbit.wordpress.com/

Here, content-management was taking more time than content!!!

See you there,
Bhaskar

Tuesday, August 6, 2013

आग की भीख

‘आग की भीख’ दिनकर द्वारा सन 1943 में लिखी गयी कविता है| यह सामधेनी (कविता संग्रह) की एक कविता है. सामधेनी संग्रह 1947 में प्रकाशित हुआ था| आजादी के पहले ऐसी कविता का देश में क्या प्रभाव पड़ा होगा, ये सोचने वाली बात है| सन 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया था| अंग्रेजों के आधीन होने के कारण भारत भी उनके टीम का हिस्सा बन गया था| इसके विरोध प्रदर्शन में गांधीजी ने अगस्त 1942 में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ (Quit India Movement) शुरू किया| अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें पकड़कर जेल में डाल दिया| प्रतिउत्तर में देशव्यापी प्रदर्शन शुरू हो गया| आक्रोशित जनता तोड़-फोड़ करने लगी| ट्रेनों की पटरियाँ उखाड़ दी, वगैरह वगैरह| अंग्रेजों ने गाँधी को इसका जिम्मेदार ठहराया| खैर इस तरह के विरोध प्रदर्शन उसके बाद लगातार चलते ही रहे| इन सबके बीच 1943 में ‘दिनकर’ की ये कविता आई:



आग की भीख
- दिनकर
1. धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा,
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँसा।
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है,
मुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा है?
दाता पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे,
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे।
प्यारे स्वदेश के हित अँगार माँगता हूँ।
चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ।

3. आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है,
बलपुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है,
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ डेर हो रहा है,
है रो रही जवानी, अँधेर हो रहा है!
निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है,
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है।
पंचास्यनाद भीषण, विकराल माँगता हूँ।
जड़ताविनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ।

5. आँसूभरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे,
मेरे शमशान में आ श्रंगी जरा बजा दे।
फिर एक तीर सीनों के आरपार कर दे,
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे।
आमर्ष को जगाने वाली शिखा नयी दे,
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे।
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ।
बेचैन ज़िन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँ।


2. बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है,
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है?
मँझदार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा,
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा।
तमवेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ।
ध्रुव की कठिन घड़ी में, पहचान माँगता हूँ।

4. मन की बंधी उमंगें असहाय जल रही है,
अरमानआरज़ू की लाशें निकल रही हैं।
भीगीखुशी पलों में रातें गुज़ारते हैं,
सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं,
इनके लिये कहीं से निर्भीक तेज ला दे,
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे।
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ।
विस्फोट माँगता हूँ, तूफान माँगता हूँ।

6. ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे,
जो राह हो हमारी उसपर दिया जला दे।
गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे,
इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे।
हम दे चुके लहु हैं, तू देवता विभा दे,
अपने अनलविशिख से आकाश जगमगा दे।
प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ।
तेरी दया विपद् में भगवान माँगता हूँ।


Sunday, August 4, 2013

जंग का वीर

 जंग का वीर

विशेषज्ञ को कोई नहीं पूछता. ना ही उन्हें जो अलग खड़े नुस्ख निकालते रहते हैं कि अगर वो सिपाही ऐसे नहीं वैसे करता तो नहीं लड़खड़ाता, फलां काम को और अच्छे से कर सकता था. उन्हें कोई नहीं पूछता. सलाम तो उसे है जो रणभूमि में खड़ा है. धूल में, पसीने में, खून में सना हुआ है. जो दृढ़ होकर आगे बढ़ने की ललक में है. वो गिरता है, बार-बार मंजिल से पीछे रह जाता है क्योंकि हर कोशिश में चुक और गलतियाँ होती हैं. मगर वो फिर उठता है, फिर आगे बढ़ने के लिए लड़ता है. वो उत्साह से भरा हुआ, एकाग्रता से लैस एक अच्छे मकसद के लिए लड़ रहा है. सुखद अंत रहा तो उसे प्यारी जीत मिलेगी या उलटे समय में हार, संघर्षमयी हार. मगर वो फिर भी उन विश्लेषकों की भीड़ से अलग रहेगा जो नाहीं हारे हैं नाहीं जीत का स्वाद चखे हैं.  
  
 "The Man in the Arena"

It is not the critic who counts; not the man who points out how the strong man stumbles, or where the doer of deeds could have done them better. The credit belongs to the man who is actually in the arena, whose face is marred by dust and sweat and blood; who strives valiantly; who errs, who comes short again and again, because there is no effort without error and shortcoming; but who does actually strive to do the deeds; who knows great enthusiasms, the great devotions; who spends himself in a worthy cause; who at the best knows in the end the triumph of high achievement, and who at the worst, if he fails, at least fails while daring greatly, so that his place shall never be with those cold and timid souls who neither know victory nor defeat.

- Theodore Roosevelt ('Citizenship in a Republic' is the title of  the speech given at the Sorbonne in Paris, France on April 23, 1910).

अमरीका के 26वें राष्ट्रपति थिओडोर रूज़वेल्ट (Theodore Roosevelt - 27 अक्टूबर'1858 – 6 जनवरी'1919) 42 वर्ष के उम्र में ही राष्ट्रपति (1901-1909) बन गये थे. अमरीकी इतिहास में सबसे कम उम्र के राष्ट्रपति. सलाम है उनको. एक बात है ये फिरंग सारी जानकारियों को बड़े अच्छे ढंग से, पुरे शोध के साथ प्रस्तुत करते हैं. हममें ये कमी है. पुस्तक है भी तो कहाँ पता नहीं. कई भारतीय योद्धाओं के विषय में बड़ी कम जानकारी एक जगह मिलती है. हमें अभी  काफी शोध और काम करने की जरुरत है. 

सखी वे मुझसे कह कर जाते


राजकुमार सिद्धार्थ रात को पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल को सोते में छोड़कर गौतम बुद्ध बनने के सफ़र में निकल पड़े. यशोधरा उन्हें अलविदा बोलना चाहती थीं. इस नए सफ़र में खुद सजाकर भेजना चाहती थीं. उन्हें शुभकामनाएं देना चाहती थीं. मगर सुबह जब पत्नी यशोधरा को पता चलता है कि सिद्धार्थ उन्हें इस तरह बिना बताये छोड़कर चले गये हैं तब उनके मन पर क्या बितती है, वो मैथिलीशरण गुप्त जी ने इस कविता में बयान की है: 




सखी वे मुझसे कह कर जाते
कहते तो क्या मुझको अपनी पग बाधा ही पाते?

मुझको बहुत उन्होंने माना
फिर भी क्या पूरा पहचाना?
मैंने मुख्या उसीको माना
जो वे मन में लाते |
सखी वे मुझसे कह कर जाते……

स्वयं सुसज्जित करके क्षण में
प्रियतम को प्राणों के पण में,
हम ही भेज देती हैं रण में
क्षात्र धर्म के नाते |
सखी वे मुझसे कह कर जाते……

हुआ न यह भी भाग्य अभागा
किस पर विफल गर्व अब जागा?
जिसने अपनाया था, त्यागा;
रहे स्मरण ही आते |
सखी वे मुझसे कह कर जाते……

नयन इन्हें हैं निष्ठुर कहते
पर इनसे जो आंसू बहते
सदय ह्रदय वे कैसे सहते
गए तरस ही खाते |
सखी वे मुझसे कह कर जाते……

जाएँ, सिद्धि पायें वे सुख से
दुखी न हों इस जन के दुःख से
उप्लाम्भ दूँ मैं किस मुख से?
आज अधिक वो भाते !
सखी वे मुझसे कह कर जाते……

गए, लौट भी वे आवेंगे
कुछ अपूर्व अनुपम लावेंगे,
रोते प्राण उन्हें पावेंगे
पर क्या गाते गाते?
सखी वे मुझसे कह कर जाते……

- राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त

Tuesday, July 23, 2013

डबल रॉड (दो डंडी वाला) गणित रैक

आज कोमल से डबल रॉड (दो डंडी वाले) गणित रैक के हिंदी अनुवाद के ऊपर बात हो रही थी| उन्होंने पूछा कि मैंने ‘teacher’ को हिंदी में ‘टीचर’ क्यूँ लिखा है, ‘शिक्षिका’ क्यूँ नहीं? मैंने कहा, अभी कुछ समय पहले प्रेमचंद की कहानी ‘बड़े भाई साहब’ पढ़ रहा था| उसमें उन्होंने कई सारे आम बोल चल वाले अंग्रेजी के शब्दों को ऐसे ही हिंदी में लिख रखा है| अतैव मैंने भी उसी तर्ज पर टीचर लिखा है| वो थोड़े संकोच में पड़ गयीं| बोलीं, “टीम में पूछूंगी”| मैंने कहा ठीक है|

फिर बाद में अपनी बात पक्की करने के लिए मैंने वो कहानी दुबारा पढ़ी| सच में, प्रेमचंद के लिए हिंदी आम लोगों की भाषा थी| इतनी सहज, सरल की कोई भी समझ ले| वही मैंने दिनकर की रश्मिरथी भी पढ़ी है| कितने सारे कठिन शब्द मिले जो हवा नहीं लगे| बस वाक्य के आधार पर अर्थ निकलना पड़ा| कौटिल्य अर्थशास्त्र में भी ऐसी हिंदी है कि समझने में पसीने छुट जाते हैं| अर्थशास्त्र विचारों में खुद ही अथाह है, उसपर क्लिष्ट हिंदी लेखनी इसे और कठिन बनाये देती है|

      भाषा सरल होनी चाहिए| हम सामने वाले तक अपने विचार पहुंचा सकें, ऐसी होनी चाहिए| न की गोया ऐसी लिख रहे हैं कि सामने वाला लोहे के चने ही चबाता रहे| हाँ ये भी जरुरी है कि आसान करने के चक्कर में अर्थ न बदले| अगर इन दोनों चीजों की तर्ज पर लेखनी खरी उतर रही है तो काहे की हाय तौबा मचाना!

Wednesday, July 17, 2013

नयी पीढ़ी के दिनकर, दुष्यंत कुमार, फैज़ अहमद फैज़ कहाँ हैं?


ऐसे ही ग़ालिब (एक मित्र का पुकारू नाम) से कल सारण में midday meal के दौरान हादसे पर बात छिड़ी, तो हम लोग इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि यह घटना कोई एक अकेली घटना नहीं है| आये दिन  हमारे समाज में लापरवाही के कारण इस तरह के हादसे हो रहे हैं| तो यह लापरवाही क्यों? इसका कारण हमारे अन्दर राष्ट्र-हित, राष्ट्र-उन्नति के भाव का आभाव है| हर चीज में हम बस अपने बारे में ही सोचते हैं और हर खामी के लिए सरकार को दोष देते हैं| ये नहीं समझते की कि ये सुधार हमारा भी काम है| बच्चों के लिए खाना अच्छे से बने इसके लिए कोई supervisor की जरुरत नहीं होनी चाहिए| रसोइये में खुद यह भाव होना चाहिए, और हर दिन होना चाहिए| 

तर्क में मैंने अपना विचार रखा कि इसके मूल में हमारे समाज में साहित्य, कविताओं और उनसे जुड़े लोगों का उचित मान न करना है| ग़ालिब ने टीचरों को महत्ता न देना इसका कारण बोला| हम सिर्फ डॉक्टर-इंजीनियर बनाने में लगे हुए है, लेखक-कवियों पर हमारा ध्यान ही नहीं है| डॉक्टर-इंजीनियर बेशक समाज के निर्माण के लिए आवश्यक हैं पर कवि-लेखक समाज में जान डालते हैं, जोश जागते हैं| टीचर राष्ट्र सम्बन्धी मूल्यों को जन्म देती है| साहित्य इसे सींचता है| इन्ही के बलपर एक नागरिक भविष्य में सजग नागरिक बनता है| हमारे विकास के मॉडल में इसका ही आभाव है| इस मॉडल में ढाँचा तो है मगर आत्मा नहीं है! दिनकर, फैज़ अहमद फैज़, दुष्यंत कुमार की रचनाओं को पढ़कर जोश आ जाता है| हमारी नयी पीढ़ी के दिनकर, दुष्यंत कुमार, फैज़ अहमद फैज़ कहाँ हैं?

PS:
1. Aag Jalni Chahiye by Dushyant Kumar
2. Hum Dekhenge by Faiz Ahmed FaizAudio on Youtube by Iqbal Bano

Saturday, July 6, 2013

ये कैसा संकेत है?

आज एक दोस्त ने बताया कि उसने बड़े सवेरे पटना की सड़क पर एक पूरी नंगी औरत को घूमते देखा | वह बिना किसी फिक्र के सड़क पर घूम रही थी और वह पागल नहीं लग रही थी|

यह निकट भविष्य की किसी बड़ी विपत्ति की ओर इशारा कर रहा है| जब एक औरत को अपनी इज्ज़त-मर्यादा की चिंता किये बगैर सड़क पर नंगी आ जाये, ये किसी घोर अनहोनी का संकेतक है| इज्ज़त जाने का डर जान से ज्यादा होता है| इसलिए वो भूख से मर जाये मगर अंत तक इज्ज़त बचाता है| जब जननी ने ही लाज का आबरू हटा दिया, फिर काहे का डर| यह एक भावी क्रांति का परिचायक है|

पुरुष घरों में मौजूद औरतों, माँ-बहन-बीवी-बेटी, की इज्ज़त बनाये बचाए रखने के लिए सड़कों पर निकलते हैं, काम करते हैं| मगर एक औरत का नंगे सड़क पर घूमना यह दिखता है कि घर की क्या स्थिति है! गरीब एक वक्त की रोटी छोड़ देता है ताकि तन ढक सके| खुद नंगा होना पड़े तो भी घर की स्त्रियों की तो इज्ज़त बचा सके, मगर जब वो भी नहीं कर पा रहा है, इसका साफ़ मतलब है कि प्राकृतिक ढाँचा टूटना शुरू हो चूका है, टूट रहा है| जब यह टूटेगा तो दृश्य प्रिय नहीं होगा|

हमारे विधाता अपना राजधर्म पूरा नहीं कर रहे हैं| कागज़ पर गरीबी रेखा, ऊपर-नीचे करना, ऊपरी लोगों को संतुष्ट करना है| जहाँ स्थिति बदलनी चाहिए वहां बदतर होती जा रही है| इतिहास गवाह है कि जब-जब औरत सड़क पर आई है, आंधी आयी है, भूचाल आया है|