Tuesday, July 23, 2013

डबल रॉड (दो डंडी वाला) गणित रैक

आज कोमल से डबल रॉड (दो डंडी वाले) गणित रैक के हिंदी अनुवाद के ऊपर बात हो रही थी| उन्होंने पूछा कि मैंने ‘teacher’ को हिंदी में ‘टीचर’ क्यूँ लिखा है, ‘शिक्षिका’ क्यूँ नहीं? मैंने कहा, अभी कुछ समय पहले प्रेमचंद की कहानी ‘बड़े भाई साहब’ पढ़ रहा था| उसमें उन्होंने कई सारे आम बोल चल वाले अंग्रेजी के शब्दों को ऐसे ही हिंदी में लिख रखा है| अतैव मैंने भी उसी तर्ज पर टीचर लिखा है| वो थोड़े संकोच में पड़ गयीं| बोलीं, “टीम में पूछूंगी”| मैंने कहा ठीक है|

फिर बाद में अपनी बात पक्की करने के लिए मैंने वो कहानी दुबारा पढ़ी| सच में, प्रेमचंद के लिए हिंदी आम लोगों की भाषा थी| इतनी सहज, सरल की कोई भी समझ ले| वही मैंने दिनकर की रश्मिरथी भी पढ़ी है| कितने सारे कठिन शब्द मिले जो हवा नहीं लगे| बस वाक्य के आधार पर अर्थ निकलना पड़ा| कौटिल्य अर्थशास्त्र में भी ऐसी हिंदी है कि समझने में पसीने छुट जाते हैं| अर्थशास्त्र विचारों में खुद ही अथाह है, उसपर क्लिष्ट हिंदी लेखनी इसे और कठिन बनाये देती है|

      भाषा सरल होनी चाहिए| हम सामने वाले तक अपने विचार पहुंचा सकें, ऐसी होनी चाहिए| न की गोया ऐसी लिख रहे हैं कि सामने वाला लोहे के चने ही चबाता रहे| हाँ ये भी जरुरी है कि आसान करने के चक्कर में अर्थ न बदले| अगर इन दोनों चीजों की तर्ज पर लेखनी खरी उतर रही है तो काहे की हाय तौबा मचाना!

Wednesday, July 17, 2013

नयी पीढ़ी के दिनकर, दुष्यंत कुमार, फैज़ अहमद फैज़ कहाँ हैं?


ऐसे ही ग़ालिब (एक मित्र का पुकारू नाम) से कल सारण में midday meal के दौरान हादसे पर बात छिड़ी, तो हम लोग इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि यह घटना कोई एक अकेली घटना नहीं है| आये दिन  हमारे समाज में लापरवाही के कारण इस तरह के हादसे हो रहे हैं| तो यह लापरवाही क्यों? इसका कारण हमारे अन्दर राष्ट्र-हित, राष्ट्र-उन्नति के भाव का आभाव है| हर चीज में हम बस अपने बारे में ही सोचते हैं और हर खामी के लिए सरकार को दोष देते हैं| ये नहीं समझते की कि ये सुधार हमारा भी काम है| बच्चों के लिए खाना अच्छे से बने इसके लिए कोई supervisor की जरुरत नहीं होनी चाहिए| रसोइये में खुद यह भाव होना चाहिए, और हर दिन होना चाहिए| 

तर्क में मैंने अपना विचार रखा कि इसके मूल में हमारे समाज में साहित्य, कविताओं और उनसे जुड़े लोगों का उचित मान न करना है| ग़ालिब ने टीचरों को महत्ता न देना इसका कारण बोला| हम सिर्फ डॉक्टर-इंजीनियर बनाने में लगे हुए है, लेखक-कवियों पर हमारा ध्यान ही नहीं है| डॉक्टर-इंजीनियर बेशक समाज के निर्माण के लिए आवश्यक हैं पर कवि-लेखक समाज में जान डालते हैं, जोश जागते हैं| टीचर राष्ट्र सम्बन्धी मूल्यों को जन्म देती है| साहित्य इसे सींचता है| इन्ही के बलपर एक नागरिक भविष्य में सजग नागरिक बनता है| हमारे विकास के मॉडल में इसका ही आभाव है| इस मॉडल में ढाँचा तो है मगर आत्मा नहीं है! दिनकर, फैज़ अहमद फैज़, दुष्यंत कुमार की रचनाओं को पढ़कर जोश आ जाता है| हमारी नयी पीढ़ी के दिनकर, दुष्यंत कुमार, फैज़ अहमद फैज़ कहाँ हैं?

PS:
1. Aag Jalni Chahiye by Dushyant Kumar
2. Hum Dekhenge by Faiz Ahmed FaizAudio on Youtube by Iqbal Bano

Saturday, July 6, 2013

ये कैसा संकेत है?

आज एक दोस्त ने बताया कि उसने बड़े सवेरे पटना की सड़क पर एक पूरी नंगी औरत को घूमते देखा | वह बिना किसी फिक्र के सड़क पर घूम रही थी और वह पागल नहीं लग रही थी|

यह निकट भविष्य की किसी बड़ी विपत्ति की ओर इशारा कर रहा है| जब एक औरत को अपनी इज्ज़त-मर्यादा की चिंता किये बगैर सड़क पर नंगी आ जाये, ये किसी घोर अनहोनी का संकेतक है| इज्ज़त जाने का डर जान से ज्यादा होता है| इसलिए वो भूख से मर जाये मगर अंत तक इज्ज़त बचाता है| जब जननी ने ही लाज का आबरू हटा दिया, फिर काहे का डर| यह एक भावी क्रांति का परिचायक है|

पुरुष घरों में मौजूद औरतों, माँ-बहन-बीवी-बेटी, की इज्ज़त बनाये बचाए रखने के लिए सड़कों पर निकलते हैं, काम करते हैं| मगर एक औरत का नंगे सड़क पर घूमना यह दिखता है कि घर की क्या स्थिति है! गरीब एक वक्त की रोटी छोड़ देता है ताकि तन ढक सके| खुद नंगा होना पड़े तो भी घर की स्त्रियों की तो इज्ज़त बचा सके, मगर जब वो भी नहीं कर पा रहा है, इसका साफ़ मतलब है कि प्राकृतिक ढाँचा टूटना शुरू हो चूका है, टूट रहा है| जब यह टूटेगा तो दृश्य प्रिय नहीं होगा|

हमारे विधाता अपना राजधर्म पूरा नहीं कर रहे हैं| कागज़ पर गरीबी रेखा, ऊपर-नीचे करना, ऊपरी लोगों को संतुष्ट करना है| जहाँ स्थिति बदलनी चाहिए वहां बदतर होती जा रही है| इतिहास गवाह है कि जब-जब औरत सड़क पर आई है, आंधी आयी है, भूचाल आया है|